राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् |
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् || 2||
राज-विद्या-विद्याओं का राजा; राज-गुह्यम्-अत्यन्त गहन रहस्य का राजा; पवित्रम्-शुद्ध; इदम् यह; उत्तमम्-सर्वोच्च; प्रत्यक्ष–प्रत्यक्ष; अवगमम्-प्रत्यक्ष समझा जाने वाला; धर्म्यम्-धर्म युक्त; सु-सुखम् अत्यन्त सरल; कर्तुम् अभ्यास करने में; अव्ययम्-अविनाशी।
BG 9.2: राज विद्या का यह ज्ञान सभी रहस्यों से सर्वाधिक गहन है। जो इसका श्रवण करते हैं उन्हें यह शुद्ध कर देता है और यह प्रत्यक्ष अनुभूति कराने वाला है। धर्म की मर्यादा के पालनार्थ इसका सरलता से अभ्यास किया जा सकता है और यह नित्य प्रभावी है।
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राजाः का अर्थ 'शासक' है। श्रीकृष्ण 'राजा' शब्द का प्रयोग ज्ञान की उस सर्वोच्च अवस्था के महत्व को व्यक्त करने के लिए करते हैं।
विद्या का अर्थ 'विज्ञान' है। श्रीकृष्ण अपने उपदेशों को पंथ, धर्म, हठधर्मिता, सिद्धान्त या विश्वास के रूप में उद्धृत नहीं करते। वे घोषणा करते हैं कि वे अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ विज्ञान का वर्णन करने जा रहे हैं।
गुह्यः का अर्थ 'रहस्य' है। यह ज्ञान भी परम रहस्यमयी है क्योंकि प्रेम केवल वहीं संभव होता है जहाँ स्वतंत्रता हो। भगवान जान बूझकर स्वयं को प्रत्यक्ष अनुभूति से गुप्त रखते हैं। इस प्रकार से वे जीवात्मा को उनसे प्रेम करने या न करने का विकल्प प्रदान करते हैं। एक यंत्र प्रेम नहीं कर सकता क्योंकि वह विकल्प रहित होता है। भगवान चाहते हैं कि हम उनसे प्रेम करें और इसलिए वह हमारी इच्छा के अनुसार उनका चयन करने या न करने का हमें विकल्प देते हैं। हम जो भी विकल्प चुनते हैं वे उसके परिणामों के संबंध में केवल सचेत करते हैं और हमारे मार्ग के चयन का निर्णय हम पर छोड़ देते हैं।
पवित्रम का अर्थ शुद्ध है। भक्ति का ज्ञान परम शुद्ध है क्योंकि यह स्वार्थों से दूषित नहीं होता। यह जीवात्मा को दिव्य प्रेम की वेदी पर भगवान के लिए समर्पित होने को प्रेरित करता है। भक्ति अपने भक्तों के पाप बीजों और अविद्या का विनाश कर उन्हें पवित्र करती है। पाप जीवात्मा के अनन्त जन्मों के बुरे कर्मों का संचय हैं। भक्ति इन्हें घास के गट्ठर के समान भस्म कर देती है। बीज से तात्पर्य अन्तःकरण की अशुद्धता से है जो पापजन्य कर्मों के बीज होते हैं। जब तक ऐसे बीज विद्यमान रहते हैं तब तक पिछले जन्मों के पापों को नष्ट करने के प्रयास पर्याप्त नहीं होंगे और पाप करने की प्रवृत्ति अन्त:करण में रहेगी। परिणामत: मनुष्य पुनः पाप करेगा।
भक्ति अन्तःकरण को शुद्ध करती है और पाप के बीजों को नष्ट कर देती है। किन्तु फिर भी बीजों का विनाश होना ही पर्याप्त नहीं है। तब अन्त:करण के अशुद्ध होने का क्या कारण है? इसका कारण अविद्या है जिसके कारण हम स्वयं की पहचान शरीर के रूप में करते हैं। इस गलत पहचान के कारण हम शरीर को आत्मा मान लेते हैं और इसलिए हमारे भीतर शारीरिक सुखों की कामनाएं उदित होती हैं और हम सोचते हैं कि इनसे हमारी आत्मा को सुख मिलेगा। ऐसी सांसारिक कामनाओं की पूर्ति हमें काम, क्रोध, लोभ और अन्त:करण को दूषित करने वाली अन्य बुराइयों की ओर धकेल देती हैं। जब तक अज्ञानता बनी रहती है तब तक हृदय शुद्ध किये जाने पर भी पुनः अशुद्ध हो जाता है। भक्ति के फलस्वरूप अन्ततः भगवान और आत्मा के ज्ञान का बोध होता है जिसके परिणामस्वरूप अज्ञानता नष्ट हो जाती है। भक्तिरसामृतसिंधु में भक्ति का वर्णन इस प्रकार किया गया है-
क्लेशस्-तु पापं तद्बीजम् अविद्या चेति ते त्रिधा।
(भक्तिरसामृतसिंधु-1.1.18)
" भक्ति पाप, बीज और अविद्या तीन प्रकार के विषों का विनाश करती है। जब इन तीनों का पूर्ण विनाश हो जाता है तब अन्त:करण वास्तव में स्थायी रूप से शुद्ध हो जाता है।"
प्रत्यक्षः का अर्थ 'प्रत्यक्ष अनुभूति' होना है। भक्ति योग का अभ्यास श्रद्धा के साथ शुरू होता है और इसके परिणामस्वरूप भगवान की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है। यह शोध की अन्य प्रणालियों की भाँति नहीं है जहाँ हम अवधारणाओं के साथ आरम्भ करते हैं और निश्चित परिणाम प्राप्त करते हैं।
धर्म्यम का अर्थ 'पुण्य कर्म करना' है। सांसारिक सुख की कामनाओं से रहित भक्ति पुण्य कर्म है। यह निरन्तर पुण्य कर्मों से पोषित होती है जैसे कि गुरु की सेवा द्वारा।
कर्तुम् सुसुखम् का तात्पर्य 'अति सहजता से पालन करने' से है। भगवान हमसे किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं करते। यदि हम प्रेम करना सीख लें तब वे सहजता से मिल जाते हैं।
यदि यह सर्वोत्तम ज्ञान है जिसका सहजता से अभ्यास किया जा सकता है तब फिर लोग इसका पालन क्यों नहीं करते? श्रीकृष्ण इसकी व्याख्या अगले श्लोक में करेंगे।